दो साल की भटकन के बाद विधवा मालती को मिला अंत्योदय राशन कार्ड, सुर्खियों ने तोड़ा प्रशासन का सन्नाटा

दो साल की भटकन के बाद विधवा मालती को मिला अंत्योदय राशन कार्ड, सुर्खियों ने तोड़ा प्रशासन का सन्नाटा
दो साल की भटकन के बाद विधवा मालती को मिला अंत्योदय राशन कार्ड, सुर्खियों ने तोड़ा प्रशासन का सन्नाटा

सूरजपुर/भैयाथान ।ग्राम बड़सरा की विधवा मालती देवी की दो वर्ष आठ माह की लंबी जद्दोजहद आखिरकार रंग लाई। अंत्योदय राशन कार्ड के लिए दर-दर भटक रही मालती के दर्द ने जब समाचार पत्रों की सुर्खियां बनकर प्रशासन को झकझोरा, तो आनन-फानन में जवाबदेह विभाग हरकत में आया। महज कुछ घंटों में जनपद पंचायत भैयाथान के सीईओ विनय गुप्ता की अगुवाई में मालती को अंत्योदय राशन कार्ड सौंप दिया गया। दरअसल मालती की कहानी उन तमाम लोगों की पीड़ा को उजागर करती है, जो व्यवस्था की उदासीनता के शिकार होते हैं। बताया गया कि मालती के पास पहले प्राथमिकता राशन कार्ड था, जिसे निरस्त कर जनपद के अधिकारी हनुमान प्रसाद दुबे ने अंत्योदय राशन कार्ड जारी कर उन्हें सुपुर्द किया। इस कार्ड के जरिए अब मालती को उचित मूल्य की दुकान से हर महीने 35 किलो राशन सस्ते दर पर मिलेगा। खुशी से गदगद मालती ने कहा, लंबे समय बाद मेरा हक मुझे मिला। अब हर महीने सस्ता राशन मिलेगा, जिससे मेरा गुजारा आसान होगा। उनकी मुस्कान जहां राहत की कहानी बयां करती है, वहीं यह सवाल भी उठाती है कि आखिर प्रशासन तब तक क्यों खामोश रहता है, जब तक कोई मामला सुर्खियां नहीं बनता....?कुलमिलाकर मालती की जीत निश्चित रूप से एक उम्मीद की किरण है, लेकिन यह घटना प्रशासन को आत्ममंथन के लिए मजबूर करती है। जरूरत है ऐसी व्यवस्था की, जहां हर जरूरतमंद तक बिना देरी और भटकन के उसका हक पहुंचे। ताकि मालती जैसी कहानियां सिर्फ जीत की नहीं, बल्कि व्यवस्था की सक्रियता की मिसाल बनें।

प्रशासन की उदासीनता पर सवाल 

यह मामला उन तमाम पीड़ितों की व्यथा को रेखांकित करता है, जो सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए संघर्ष करते हैं। प्रशासन की पहुंच और जवाबदेही की कमी तब तक बरकरार रहती है, जब तक समाचार पत्रों की सुर्खियां अधिकारियों को नींद से न जगाएं और मीडिया का शोर अधिकारियों को हरकत में न लाए। यह पुरानी परंपरा, जहां जरूरतमंदों को उनका हक तभी मिलता है, जब उनकी व्यथा सुर्खियां बनती है,यह कब टूटेगी......?

यह सवाल आज भी हवा में तैर रहा है। इसके साथ ही यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि ऐसी पुरानी परंपरा कब टूटेगी, जब जरूरतमंदों को उनको हक पाने के लिए मीडिया का सहारा लेना पड़ता है...?